राणा कुंभा का जन्म 1403 ई. में चितौडगढ़ दुर्ग में हुआ।
राणा कुंभा का राज्यभिषेक 1433 ई. में चितोडगढ़ दुर्ग में हुआ।
राजस्थान में कला व स्थापत्य कला की दृष्टि से राणा कुंभा का काल स्वर्ण काल कहलाता है। राणा कुंभा को स्थापत्य कला का जनक कहते है।
महाराणा कुंभा के पिता का नाम मोकल व माता का नाम परमारवंशी सौभाग्यदेवी था।
महाराणा कुंभा के शासक बनते ही उसके सामने दो बड़ी समस्याएं थी - प्रथम पिता मोकल के हत्यारे चाचा व मेरा तथा दूसरी मेवाड़ पर मारवाड़ के रणमल राठौड़ का प्रभाव नष्ट करना।
कुंभा ने कुटनीति का परिचय देते हुए रणमल राठौड़ को मारवाड़ से बुलाकर उसकी सहायता से चाचा व मेरा की हत्या करवा दी। लेकिन चाचा के पुत्र एच्का व उसके सहयोगी महपा पंवार भागकर माण्डु सुल्तान की शरण में चले जाते है।
कुंभा ने मेवाड़ के सामन्तो के दबाव के कारण रणमल के प्रभाव को खत्म करने के लिए हँसाबाई के साथ डावरिया प्रथा के तहत् दहेज में आई दासी भारमली की सहायता से रणमल की शराब में जहर मिलाकर, रणमल की हत्या कर दी।
जब मारवाड़ के रणमल की हत्या (1438 ई.) चितौड़गढ़ में हुई तब उसका पुत्र जोधा भी मेवाड़ में मौजूद था। • जोधा अपनी जान बचाकर मारवाड़ की तरफ भागता है। परंतु मारवाड़ पर पहले से ही राणा लाखा के ज्येष्ठ पुत्र चुंडा मारवाड़ पर अधिकार कर चुका होता है। इसलिए जोधा मारवाड़ से भागकर बीकानेर के काढूनी गॉव में शरण लेता है और शेष मारवाड़ पर 15 वर्षों तक काहूनी से शासन करता है।
मण्डौर व जोधपुर पर 15 वर्षों तक चूंडा के पुत्र कुंतल, मांझा व सूवा ने शासन किया था।
मेवाड़ के राणा कुम्भा व मारवाड़ के राव जोधा के बीच 1453 ई. में आवल-वावल की संधि हुई। इस संधि के द्वारा मेवाड़ व मारवाड़ की सीमा का निर्धारण किया गया जिसका केन्द्र बिन्दु सोजत रखा गया तथा जोधा ने अपनी पुत्री श्रृंगार देवी का विवाह राणा कुम्भा के पुत्र रायमल से किया। इसकी जानकारी श्रृंगार देवी द्वारा बनाई गयी घोसुण्डी की बावड़ी (चितौड़गढ) पर लगी प्रशस्ति से मिलता है।
1437 ई. में राणा कुम्भा व मालवा के शासक महमूद खिलजी प्रथम के बीच सारंगपुर का युद्ध हुआ।
सारंगपुर युद्ध में राणा कुम्भा विजयी हुआ तथा युद्ध विजयी की खुशी में चितौड़गढ़ दुर्ग में विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया। विजय स्तम्भ 122 फीट ऊँचा व 9 मंजिला इमारत है।
विजयस्तम्भ (1440-48 ई. में बना) पर अत्रि व उसके पुत्र महेश द्वारा कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति (1460 ई.) लिखी गयी इसलिए विजयस्तम्भ को कीर्तिस्तम्भ भी कहते है।
विजय स्तम्भ के शिल्पी जैता, नापा, पूंजा थे। विजयस्तम्भ पर भारतीय देवी-देवताओं के चित्र उत्कीर्ण है। अतः विजय स्तम्भ को भारतीय अजायबघर कहते है।
कर्नल टॉड ने विजय स्तंभ को कुतुबमीनार से बेहतरीन इमारत बताया
है तथा फर्ग्यूसन ने विजय स्तंभ की तुलना रोम के टार्जन से की है।
राजस्थान ने 15 अगस्त 1949 ई. को अपना सर्वप्रथम डाक टिकट विजय स्तंभ पर जारी किया। यह डाक टिकट एक रूपये का था। माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (राजस्थान-अजमेर), जे.के. सीमेंट व राजस्थान पुलिस का प्रतीक चिन्ह विजय स्तम्भ है। विजय स्तम्भ विष्णु को समर्पित है अतः इसे डॉ. उपेन्द्र नाथ डे ने विष्णु ध्वज या विष्णु स्तम्भ भी कहा है।
डॉ. हर्मन गोट्ज ने इसे भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोश कहा है। यह भारतवर्ष का एकमात्र स्तंभ है, जो भीतर और बाहर दोनों तरफ विभिन्न प्रकार की मूर्तियों से अलंकृत है।
कीर्ति स्तंभ की भाषा मेवाड़ी है और इसकी निर्माण पद्धति चापवक है।
चितौड़ में कुंभा के विजय स्तंभ के अलावा एक जैन कीर्ति स्तंभ भी है, जो लगभग 13वीं शताब्दी के आस-पास निर्मित हुआ है। इसमें सात मॅजिले है। यह प्रथम जैन तीथ5कर आदिनाथ को समर्पित है। इसलिए इसे आदिनाथ स्मारक भी कहते है। इसका निर्माता जीजा का पुत्र सेनाय था।
इसी के ऊपर कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति अंकित है, जिसे अत्रि ने लिखना प्रारंभ किया और महेश भट्ट ने पूर्ण किया। कवि महेश भट्ट की उपाधि कविश्वर की थी।
के कारण जैन कीर्ति स्तंभ हिन्दु स्थापत्य में अपने प्रकार का पहला है और महाराणा कुंभा का कीर्ति स्तंभ दूसरा है।' अन्य कीर्ति स्तंभ- अचलगढ़ (आबू) में भी कुंभा ने कीर्ति स्तंभ का निर्माण करवाया।
चितौडगढ़ दुर्ग में जैन संत जीजा द्वारा बनवाया गया जैन कीर्ति स्तंभ भी है। जो प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव/ आदिनाथ को समर्पित है। जैन कीर्ति स्तंभ 75 फीट ऊंचा सात मंजिला इमारत है।
कुंभा को गुजरात के शासकों के द्वारा हिन्दु सुरताण की उपाधि दी गई। राणा कुंभा को अधपति, गणपति छाप गुरू (छापामार पद्धति में कुशल) आदि सैनिक उपाधियां भी प्राप्त थी।
राणा कुंभा को हाल गुरू (गिरी दुर्गा का स्वामी), राजगुरू (राजनीति में दक्ष), राणारासो (साहित्यकारों का आश्रयदाता), अभिनव भरताचार्य, नाटकराजकर्ता (कुंभा ने 4 नाटक लिखे), प्रज्ञापालक, रायरायन, महराजा धिराज, महाराणा, चापगुरू (धनुर्विद्या में पारंगत ), शैलगुरू, नरपति, परमगुरू, हिन्दू सूरताण, दान गुरू, तोडरमल (संगीत की तीनों विधाओं में श्रेष्ठ), नंदनदीश्वर (शैव धर्म का उपासक) आदि उपाधियाँ प्राप्त थी।
कुंभलगढ़ दुर्ग- कुंभलगढ़ दुर्ग कुंभा द्वारा अपनी पत्नी कुंभलदेवी की याद में 1443-59 ई. के बीच बनवाया गया। कुंभलगढ़ दुर्ग को कुंभलमेर दुर्ग, मछींदरपुर दुर्ग, बैरों का दुर्ग, मेवाड़ के राजाओं की शरण स्थली, कुंभपुर दुर्ग, कमल पीर दुर्ग भी कहा जाता है। • कुंभलगढ़ दुर्ग में कृषि भूमि भी है। अतः कुंभलगढ़ दुर्ग को राजस्थान का आत्मनिर्भर दुर्ग कहा जाता है।
कुंभलगढ़ दुर्ग में 50 हजार व्यक्ति निवास करते थे।
कुंभलगढ़ दुर्ग हाथी की नाल दर्रे पर अरावली की जरगा पहाड़ी पर कुंभलगढ़ अभयारण्य में राजसमंद जिले में स्थित है। कुंभलगढ़ दुर्ग का परकोटा भारत में सभी दुर्गों के परकोटे से लम्बा है। इसका परकोटा 36 किमी. लम्बा है। अतः इसे भारत की दीवार (चीन की दीवार के समतुल्य) भी कहते है। इसकी प्राचीर पर एक साथ चार घोड़े दौड़ाए जा सकते है।
राणा कुम्भा के समय 1439 ई. में पाली में राणकपुर के जैन मन्दिर (कुम्भलगढ अभयारण्य) का निर्माण धरणक सेठ द्वारा करवाया गया इन मंदिरों का शिल्पी देपाक/ देपा था।
रणकपुर के जैन मंदिर मथाई नदी के किनारे स्थित है। रणकपुर के जैन मन्दिरो को चौमुखा मन्दिर भी कहते है। यह मन्दिर प्रथम जैन तीर्थकर आदिनाथ (ऋषभदेव) को समर्पित है।
फर्ग्यूसन ने इस मंदिर को देखने के बाद कहा था कि 'इस बात से इन्कार
नहीं किया जा सकता कि यह अभी पूर्ण रूप से विद्यमान है तथा ऐसा जटिल और विस्तृत जैन मंदिर देखने का मुझे अन्यत्र अवसर प्राप्त नहीं हुआ।'
रणकपुर के जैन मन्दिर में 1444 खम्भे है। अतः इन्हें खम्भों का मन्दिर या स्तम्भों का वन भी कहते है।
राणा कुम्भा द्वारा बदनौर (भीलवाड़ा) में कुशाल माता का मंदिर बनवाया गया।
कुंभा कालीन जैन आचार्य- सोमसुंदर सुरी, जयशेखर सुरी, भुवनकीर्ति एवं सोमदेव प्रमुख थे।
कुंभा ने चितौडगढ़ दुर्ग का पुनः निर्माण करवाया। कुंभा ने कैलासपुरी, उदयपुर स्थित बप्पा रावल द्वारा निर्मित एकलिंगनाथ
मंदिर का पुनः निर्माण करवाया। कुंभा को राजस्थानी इतिहास में युग पुरूष कहा गया है ।
कुंभा धर्म सहिष्णु शासक था। उसने आबू पर जाने वाले तीर्थ यात्रियों से लिया जाने वाला कर समाप्त कर दिया था।
हरविलास शारदा के अनुसार, 'कुंभा एक महान शासक, महान सेनाध्यक्ष, महान निर्माता और वरिष्ठ विद्वान था।'
कुंभा के दरबार में मण्डन, नाभा, गोविन्द, कान्ह व्यास, महेश आदि विद्वान थे।
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